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तमिलनाडु के पूर्व राज्यपाल पीएस राममोहन राव के संस्मरण के विमोचन के दौरान उपराष्ट्रपति के भाषण का मूल पाठ (अंश)

भारत जितनी तेजी से उन्‍नति कर रहा है ऐसी उन्‍नति उसने कभी नहीं की और यह बढ़ोतरी अबाध है। राष्ट्र का वैश्विक महत्‍व और पहचान उस स्तर पर है जो पहले कभी नहीं थी। यह उन्‍नति भीतर और बाहर की चुनौतियों के साथ है।

यहीं पर बुद्धिजीवी और मीडिया के लोग तस्वीर में आते हैं। हम सभी को भारत विरोधी ताकतों के इनक्यूबेटरों और वितरकों के उद्भव के बारे में जागरूक होने की जरूरत है, जो हमारे विकास पथ को कम करने और हमारे कार्यात्मक लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थानों को बदनाम करने के लिए नुकसान पहुंचाने वाली बातें कर रहे हैं। यह जरूरी है कि हम सभी अपने राष्ट्र और राष्ट्रवाद में विश्वास करें और ऐसे दुस्साहसों को बेअसर करने में जुट जाएं।

लोकतंत्र में, सभी समान रूप से कानून के प्रति जवाबदेह हैं। कानून द्वारा किसी को भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो सकता है, अन्यथा लोकतंत्र का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा यदि ए और बी के बीच, ए को कानून द्वारा एक अलग चश्मे से देखा जाएगा।

आप कितने ऊँचे हैं, कानून हमेशा आपसे ऊपर है। यह हम सभी जानते हैं कि ऐसे कोई विशेषाधिकार नहीं हो सकते। इन विशेषाधिकारों का अमल नहीं हो सकता। कानून की कठोरता सभी पर लागू होती है। दुर्भाग्यवश कुछ लोग सोचते हैं कि वे हैं अलग या उनसे अलग तरह से निपटा जाना चाहिए।

हमारा सबसे जीवंत और कार्यात्मक लोकतंत्र है। समानता एक ऐसी चीज है जिससे हम कभी भी समझौता नहीं कर सकते। कानून का पालन वैकल्पिक नहीं है। कुछ लोगों को इसे महसूस करना होगा। खुफिया और मीडिया को इसके बहुत मायने देखने होंगे।

लोकतंत्र में, शासन की गतिशीलता हमेशा चुनौतीपूर्ण होगी, संवैधानिक संस्थाओं के सामंजस्यपूर्ण कामकाज की आवश्यकता होती है, यह हमेशा होता रहेगा। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – मुद्दे हमेशा रहेंगे और हमारे पास कभी ऐसा दिन नहीं होगा जब हम कह सकें कि कोई समस्या नहीं होगी, क्योंकि हम एक गतिशील समाज हैं, ऐसा होना तय है।

जो लोग इन संस्थाओं के मुखिया हैं, उनके लिए टकराव करने या शिकायतकर्ता होने का कोई स्थान नहीं है। जो लोग कार्यपालिका, विधायिका या न्यायपालिका के मुखिया हैं, वे आत्मसंतुष्ट नहीं हो सकते, वे टकराव की स्थिति में कार्य नहीं कर सकते। उन्हें सहयोग से कार्य करना होगा और एक साथ समाधान खोजना होगा।

मैं लंबे समय से सोच रहा था कि इन संस्थानों के शीर्ष पर एक संरचित तंत्र की आवश्यकता है – विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। और बातचीत के ऐसे संरचित तंत्रों को बहुत आगे जाना है। जो लोग इन संस्थानों के प्रमुख हैं, वे अन्य संस्थानों के साथ बातचीत के लिए अपने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं।

मुझे कोई संदेह नहीं है… मैं लंबे समय से कह रहा हूं… देश का महान लोकतंत्र बढ़ता है और फलता-फूलता है, यह हमारे संविधान की प्रधानता है जो लोकतांत्रिक शासन की स्थिरता, सद्भाव और उत्पादकता को निर्धारित करती है। और संसद जो लोगों के जनादेश को दर्शाती है संविधान की अंतिम और विशिष्‍ट वास्तुकार है।

एक संविधान को संसद के माध्यम से लोगों से विकसित करना होता है। संविधान को विकसित करने में कार्यपालिका की कोई भूमिका नहीं होती है और न्यायपालिका सहित किसी अन्य संस्था की संविधान को विकसित करने में कोई भूमिका नहीं होती है। संविधान का विकास संसद में होना है और उस पर गौर करने के लिए कोई सुपर बॉडी नहीं हो सकती है। इसे संसद के साथ समाप्त होना है।

लोकतांत्रिक मूल्य और सार्वजनिक हित अधिकतम कार्य करते हैं, जब विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका अपने-अपने दायित्वों का ईमानदारी से अपने अधिकार क्षेत्र तक सीमित होकर और सद्भाव, एकजुटता और तालमेल से काम करते हुए अपने दायित्‍वों का निर्वहन करती हैं। यह सर्वोत्कृष्ट है, इसमें कोई भी परिवर्तन लोकतंत्र के लिए समस्या पैदा करेगा। यह शक्ति को लेकर किसी को हक दिखाना नहीं है। यह संविधान द्वारा हमें दी गई शक्तियों के बारे में अधिकार है। और यह एक चुनौती है जिसका हम सभी को सामूहिक रूप से सामना करना होगा और सामंजस्यपूर्ण ढंग से निर्वहन करना होगा।