हिमालयी हिमनद जलग्रहण क्षेत्रों की वास्तविक-समय निगरानी से बाढ़ की पूर्व चेतावनी की प्रणाली को सुदृढ़ करके आपदा के खतरे को कम से कम किया जा सकता है
हाल में ही किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालयी हिमनद जलग्रहण क्षेत्रों की वास्तविक-समय निगरानी से इन क्षेत्रों में बाढ़ के खतरों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और इससे बाढ़ की पूर्व चेतावनी की प्रणाली को समय पर सूचना देने से आसन्न आपदा को रोकने में सहायता मिलने के साथ ही असंख्य मानव जीवन बचाए जा सकते हैं ।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), कानपुर के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालयी क्षेत्रों के हिमनदों में बनी झीलों के फटने की स्थिति (ग्लेसियल लेक आउटबर्स्ट्स – जीएलओएफ) में मानव जीवन की क्षति को कम करने के लिए ऐसा करना ही भविष्य की रणनीति होना चाहिए । यह अध्ययन आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों- डॉ. तरुण शुक्ल और प्रोफेसर इंद्र शेखर सेन ने विज्ञानं और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के सहयोग से किया है और यही अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘साइन्स’ में प्रकाशित हुआ है ।
जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान और अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बड़ी तेजी से बढ़ रही है । सुविधानुसार विश्व का ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाने वाला हिमालयी क्षेत्र विश्व में ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर सबसे बड़ा हिम क्षेत्र है। हिमालयी हिमनद अपेक्षाकृत तेज गति से पिघल रहे हैं जिससे नई झीलों का निर्माण हो रहा है और इस समय विद्यमान झीलों के आकार और क्षेत्र में वृद्धि हो रही है। इसके अलावा बढ़ते हुए तापमान और अत्यधिक भारी वर्षा की घटनाओं से यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की आशंका वाला क्षेत्र बनने लगा है, जिसमें हिमालयी हिमनदों में बनी झीलों का विनाशकारी रूप से फट कर बाढ़ आना (जीएलओएफ) शामिल है ।
जीएलओएफ तब होता है जब हिमनदों में बनी झीलों के मुहाने पर बने प्राकृतिक बाँध टूटते हैं या फिर इन झीलों के जल स्तर में अचानक तेजी से बड़ी भारी वृद्धि होने के बाद पानी किनारों को तोड़कर नीचे वाले कस्बों में भयानक विनाशकारी आपदा में बदल जाता है। इसका एक उदाहरण वर्ष 2013 में दिखा था जब एक हिमस्खलन ने उत्तर भारत में हिमनद में बनी चोराबाड़ी झील को तोड़ दिया था जिससे अचानक आए तेज जल प्रवाह के साथ बही बड़ी-बड़ी चट्टानों और मलबे ने नीचे की नदी घाटी में पहुँच कर तांडव किया था। इसका परिणाम 5,000 से अधिक लोगों की मृत्यु था। जलवायु परिवर्तन होने के साथ ही समूचे हिमालयी क्षेत्र में ऐसी घटनाओं की आवृति और उनके प्रभाव में बढ़ोत्तरी की आशंकाएं भी बहुत बढ़ गयी हैं। हालांकि, हिमालयी क्षेत्र की दुर्गम एवं चुनौती से भरी घाटियों में मोबाइल संपर्क के व्यापक अभाव के कारण इस क्षेत्र में बाढ़ की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणाली के विकास को लगभग असम्भव किया हुआ है ।
आपने हालिया शोध में इन वैज्ञानिकों ने यह भी इंगित किया है कि हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र की नदियों में हिमनदों से बर्फ के पिघल कर अचानक से पानी का बढ़ना उन क्षेत्रों में आम तौर पर बादल फटने के बाद होता है जो मानसूनी वर्ष के महीनों (जून-जुलाई-अगस्त) में सामने आता है। हालांकि हाल में ही सूखे मौसम के दौरान 07 फरवरी, 2021 को चमोली जिले में गंगा (अलकनंदा) की सहायक नदी धौली गंगा में अचानक हिमनद से आये भारी जल प्रवाह ने यह सुझाया है कि अब इस कालखंड को विस्तारित करने की आवश्यकता है। ऊपरी धौली गंगा के जलागम क्षेत्र में हुए विनाश को भारी वर्षा की स्थिति से इतर प्रक्रियाओं जैसे हिमस्खलन, चट्टानों का खिसकना,या कुछ अन्य अपरिचित कारणों से जोड़ा जा रहा है। अतः इस क्षेत्र की खतरनाक प्रकृति और प्रवृत्ति को समझने के लिए यहाँ की नदियों में हिमनद पिघलने के बाद अचानक से भरी जल प्रवाह बढ़ जाने के सभी सम्भावित छोटे-बड़े कारकों का निर्धारण बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
आईआईटी, कानपुर के वैज्ञानिकों के दल ने सुझाव दिया है कि भविष्य में जीएलओएफ जैसी घटनाओं में कमी लाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों में उपग्रह आधारित निगरानी केन्द्रों के नेटवर्क तैयार करना शामिल होना चाहिए ताकि जीएलओएफ खतरों पर यथास्थान एवं वास्तविक-समय आंकड़े मिल सकें।
इस लेख के लेखकों ने आगे विस्तार से कहा है कि निगरानी उपकरणों को उपग्रह से जोड़ने से इस क्षेत्र में दूर दराज के उन दुर्गम क्षेत्रों में न केवल दूरमापी (टेलीमीटरी) सहायता मिल सकेगी जहां अभी भी सेलुलर नेटवर्क है ही नहीं, वरन घाटियों, चोटियों और तीखी खडी ढलानों जैसे मोबाइल नेटवर्क रहित दुर्गम स्थानों में अधिक से अधिक संचार के साधन पहुँच पाएंगे ।