NewsExpress

News Express - Crisp Short Quick News
इस एक चूक ने बंगाल में लेफ्ट को शिखर से शून्य पर पहुँचा दिया, आईएसएफ-कांग्रेस के साथ…

पश्चिम बंगाल में एक गलत लिए गए फ़ैसले ने आसमान में उड़ने वाली माकपा को तृणमूल कांग्रेस ने ऐसी पटकनी दी कि अब तक फ़र्श से उठने का नाम ही नही ले रहा है। ममता बनर्जी तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुकी हैं और यह आजादी के बाद पहला मौका है, जब वामदलों का बंगाल विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होगा।

माकपा ने 2006 में राज्य में 176 सीटें जीती थीं और बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन उनके कार्यकाल में सिंगूर में टाटा मोटर्स के लिए किसानों की भूमि के अधिग्रहण के फैसले ने तृणमूल कांग्रेस को राज्य में अपनी जड़ें जमाने का मौका दे दिया। नतीजा यह हुआ कि 2011 में माकपा के 34 साल के शासन का अंत हो गया। लेकिन तब भी माकपा को 30 फीसदी मत और 40 सीटें मिली थीं। 2006 की तुलना में मत प्रतिशत सात फीसदी कम हुआ था। लेकिन 2016 में माकपा का वोट प्रतिशत और घट गया। पार्टी 19.75 फीसदी मतों पर सिमट गई और सीटें 26 रह गईं। तब माकपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था। 

प्रख्यात राजनीतिक पंडितों का मानना है कि माकपा के सत्ता गंवाने के पीछे भले ही सिंगूर रहा हो, लेकिन बाद में उसके खड़े नहीं हो पाने के कई कारण हैं। दरअसल, जिन मुद्दों को लेकर माकपा राजनीति करती थी, उन्हीं सब मुद्दों को ममता ने आत्मसात कर लिया तथा उसी तर्ज पर अपना कैडर खड़ा कर लिया। ममता राज्य में एक मजूबत मुख्यमंत्री के रूप में उभरकर आईं तो माकपा कोई चेहरा पेश नहीं कर पाई। 34 वर्षों के शासन में माकपा जिस विरोधी दल कांग्रेस से लड़ती थी, उसी से उसने हाथ मिला लिया। इस सबके बावजूद हाल के वर्षों में जब राज्य में भाजपा ने पैठ बढ़ानी शुरू की तो वामदल यह तय नहीं कर पाए कि उन्हें तृणमूल से लड़ना है या भाजपा से। इन सब कारणों के चलते आज माकपा राज्य में शून्य पर है।