कान्स फिल्म समारोह में ट्री फुल ऑफ पैरट्स, धुई सहित पांच फिल्में होंगी प्रदर्शित
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कान्स फिल्म समारोह में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों की सूची जारी की है। सूची में रॉकेट्री का विश्व प्रीमियर भी शामिल है, जिसमें आर माधवन ने मुख्य भूमिका निभायी है तथा इसका निर्देशन भी माधवन ने किया है। रॉकेट्री-द नांबी इफेक्ट का प्रीमियर जहां पलाइस के में होगा वहीं बाकी फिल्मों का प्रदर्शन ओलम्पिया थिएटर में किया जाएगा। 75वें फिल्म समारोह में प्रदर्शित होने वाली फिल्में निम्न हैं:
1.‘रॉकेट्री – द नांबी इफेक्ट’
निर्देशक: आर. माधवन
निर्माता: आर. माधवन
भाषा: हिंदी, अंग्रेजी, तमिल
सारांश
रॉकेट्री- द नांबी इफेक्ट फिल्म में श्री नांबी नारायणन के जीवन की कहानी को चित्रित किया गया है, जिसे एक टीवी कार्यक्रम में लोकप्रिय सुपरस्टार और बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान ने एक साक्षात्कार में दर्शकों के सामने रखा था। कई महान व्यक्तियों की तरह, नांबी में भी कुछ कमियां हैं। अपनी प्रतिभा और जुनून के कारण उन्हें दुश्मनों और विरोधियों का सामना करना पड़ा। इन सभी बातों ने उन्हें एक आकर्षक आधुनिक नायक बना दिया।
फिल्म समाज में मौन रहते हुए उपलब्धि हासिल करने वाले तथा इससे आगे जाकर भी कुछ करने वाले व्यक्ति के जीवन का वर्णन करती है। यह फिल्म दर्शकों को विशेष योगदानकर्ताओं की पहचान करने और उन्हें सम्मान देने की जिम्मेदारी लेने की चुनौती देती है, चाहे वे नांबी नारायणन हों, या गरीब बच्चों को शिक्षा देने वाले शिक्षक हों, या सीमा पर तैनात सैनिक हों, या दूरदराज के गांवों में सेवा देने वाले डॉक्टर हों, या जरूरतमंदों की मदद करने वाले स्वयंसेवक हों। फिल्म एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी सामने रखती है- हम शक्तिशाली लोगों के आधिपत्य के खिलाफ अपने निर्दोष और शक्तिहीन की रक्षा के लिए सामूहिक रूप से क्यों नहीं खड़े होते हैं? एक नांबी के बदले, ऐसे मौन रहकर उपलब्धि हासिल करने वाले हजारों लोग हैं, जो न्याय पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
इन कहानियों को जानने-सुनने की जरूरत है। यह नांबी से शुरू होता है, लेकिन यह सिर्फ एक शुरुआत है।
2. गोदावरी
निर्देशक: निखिल महाजन
निर्माता: ब्लू ड्रॉप फिल्म्स प्रा. लिमिटेड
भाषा: मराठी
सारांश
यह निशिकांत देशमुख की कहानी है- जो एक नदी के किनारे अपने परिवार के साथ एक पुरानी हवेली में रहते हैं। पीढ़ियों से निशि और उनका परिवार किराया वसूल करने वाला रहा है। उनके पास शहर के पुराने हिस्से के आसपास काफी संपत्ति है। उनके दादा, नरोपंत, डेमेंसिया से पीड़ित हैं, उनके पिता नीलकांत को भूलने की बीमारी है।
इस परिवार के वर्तमान वारिस के रूप में, निशिकांत अपने जीवन से निराश हैं। वे पुराने शहर के तरीकों से नफरत करते हैं, वे अपने जीवन की तुच्छता से नफरत करते हैं, वे इस बात से भी नफरत करते हैं कि वे अक्षम रहे हैं- लेकिन अधिकांश भारतीय पुरुषों की तरह, वे अपनी नफरत को अपने अन्दर समाहित करते हैं और सारा दोष किरायेदारों व शहर जैसे कारणों को देते हैं, जिन्हें पूरी तरह से दोषमुक्त भी नहीं कहा जा सकता है। निशिकांत किराया वसूल करते हैं और नदी से दूर अपने छोटे से अपार्टमेंट में वीडियो गेम खेलते रहते हैं। वे अपनी पत्नी और बेटी को अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए छोड़कर, अपनी पारिवारिक हवेली से बाहर इस अपार्टमेंट में रहते हैं। वे अपना समय नदी और उसके साथ आने वाली सभी चीज़ों पर गुस्सा करने में बिताते हैं। वे जानते हैं कि उनका जीवन अर्थहीन हो चुका है।
हालांकि, जीवन और मृत्यु हमेशा साथ-साथ आते हैं, बिना अवरोध के एक-दूसरे से जुड़े होते हैं एवं यह मिलन उस शहर में और भी अधिक स्पष्ट होकर उभरता है, जहां एक व्यक्ति की मृत्यु, इतने सारे लोगों के लिए जीने का तरीका होती है।
3. अल्फा बीटा गामा
निर्देशक: शंकर श्रीकुमार
निर्माता: छोटी फिल्म प्रोडक्शंस
भाषा: हिंदी
सारांश
निर्देशन के क्षेत्र में जय का करियर निरंतर ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहा है, जबकि उनका वैवाहिक जीवन संकट में है और वह अपनी प्रेमिका कायरा के साथ जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। उसकी पत्नी, मिताली- तलाक चाहती है ताकि वह अपने इंजीनियर प्रेमी रवि से शादी कर सके, जो कि उसके जल्द ही होने वाले पूर्व पति के उलट बेहद शांत और परवाह करने वाला है।
जब जय तलाक की बात करने के लिए आता है, तो रवि उस फ्लैट में मौजूद होता है जो कभी जय और मिताली का घर हुआ करता था। रवि यह महसूस करता है कि एक– दूसरे से विरक्त हो चुके दंपति के लिए उसके सामने तलाक पर चर्चा करना अजीब होगा। वह वहां से जाने का फैसला करता है।
लेकिन इससे पहले कि मिताली के जीवन में एक पुरुष दूसरे को रास्ता दे पाता, कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन लग जाता है।
अब प्रेम के वायरस से पीड़ित तीन व्यक्ति यह तय करने के लिए जूझते हैं कि उन्हें क्या चाहिए और किस कीमत पर, वह भी तब जबकि उनके पास अपने भीतर झांकने के अलावा और कहीं जाने का विकल्प उपलब्ध नहीं है।
4. बूम्बा राइड
निर्देशक: बिस्वजीत बोरा
निर्माता: क्वाटरमून प्रोडक्शंस
भाषा: मिशिंग
सारांश
गॉड ऑन द बालकनी के निर्देशक बिस्वजीत बोरा की बूम्बा राइड भारत की ग्रामीण शिक्षा प्रणाली में फैले व्यापक भ्रष्टाचार पर एक तीखा हास्य व्यंग्य है– और यह आठ साल के एक ऐसे लड़के (नवोदित इंद्रजीत पेगू, एक उल्लेखनीय भूमिका में) के बारे में है जो हेराफेरी करके खेल को अपने पक्ष में करना जानता है। एक सच्ची कहानी से प्रेरित, इस फिल्म को असम में ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर ज्यादातर गैर-पेशेवर कलाकारों के साथ शूट किया गया है।
इस फिल्म की कहानी एक साधनहीन स्कूल के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमें केवल एक (अनिच्छुक) छात्र, बूम्बा है। अपनी नौकरी और फंडिंग को बनाए रखने के लिए बेताब उस स्कूल के सभी शिक्षक उदासीन एवं असहयोगी रवैया रखने वाले इस लड़के को कक्षा में आने के लिए रिश्वत देते हैं- जबकि बूम्बा की गुप्त इच्छा शहर के एक ऐसे बेहतर वित्त-पोषित स्कूल में जाने की है, जहां बस एक थोड़ी बड़ी और बहुत सुंदर लड़की पढ़ती हो।
निर्देशक बिस्वजीत बोरा कहते हैं, “बूम्बा राइड एक ऐसी फिल्म है जो मेरे दिल के बेहद करीब है। मेरा जन्म और पालन-पोषण असम के ग्रामीण इलाके में हुआ है। मैं वहां इसी किस्म की कहानियों का गवाह रहा हूं जहां सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में वो सारी उचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती हैं जोकि किसी स्कूल में होनी चाहिए।” “मेरा मानना है कि जागरूकता बढ़ाने और अपने गरीब एवं वंचित वर्ग के बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेकर ही हम व्यापक तरीके से बदलाव ला सकते हैं। इस फिल्म को बनाना आसान नहीं था क्योंकि मैंने गैर-अभिनेताओं के साथ शूटिंग की और हमारे बीच भाषा की बाधाएं भी थीं। हालांकि, मैं इसे अपने अब तक के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक मानता हूं क्योंकि गांव के लोग बेहद सच्चे और मासूम थे। यह बात वाकई मेरे दिल को छू गई। गांव की लोकेशन उतनी ही खूबसूरत थी, जितनी कि इस फिल्म में दिखाई देती हैं और सबसे दिलचस्प बात यह है कि हमने स्थानीय लोगों के साथ वास्तविक लोकेशनों पर शूटिंग की। नायक बूम्बा भी उतना ही मासूम है और यह विश्वास करना बेहद कठिन है कि उसने अपने जीवन में सिनेमाघर तक नहीं देखा है। मुझे विश्वास है कि लोग इस गंभीर हास्य मिश्रित कहानी से जुड़ाव महसूस करेंगे क्योंकि यह और कुछ नहीं बल्कि एक ऐसे वास्तविक जीवन का सूक्ष्म चित्रण है जो वाकई में आज की दुनिया में मौजूद है।”
5. धुईं
निर्देशकः अचल मिश्रा
निर्माताः अचल-चित्र
भाषाः हिन्दी, मराठी
सारांश
पकंज अभिनेता बनना चाहता है और स्थानीय नगर निकाय के लिये नुक्कड़ नाटक करता है, ताकि अपना भरण-पोषण कर सके। उसके सपने बहुत बड़े हैं। वह अपने मित्र प्रशांत के साथ महीने भर में मुम्बई जाना चाहता है, जिसके लिये वह पर्याप्त बचत कर रहा है। लॉकडाउन के बाद उसके घर पर वित्तीय संकट आ पड़ा है और उसके सेवानिवृत पिता किसी नौकरी की तलाश में हैं।
वह दिन भर शहर में घूमता रहता है, थियेटर के अपने साथियों से मिलता है और उसके सीनियर लोग उस पर रौब जमाते रहते हैं। वह भी अपने जूनियरों को सलाह देता रहता है। मुम्बई के एक फिल्म-निर्माता से उसकी मुलाकात होती है, जिसका अप्रत्याशित नतीजा निकलता है। उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह तय कर लेता है कि वह अपनी सारी जमा-पूंजी दे देगा, ताकि उसके पिता को नौकरी न करनी पड़े। मुम्बई के एक
एक शाम घर लौटने पर, उससे कहा जाता है कि दो-एक दिन में निकट के शहर में एक नौकरी आने वाली है, जहां उसे अपने पिता के साथ जाना है। वहां आने-जाने और नौकरी के लिये पैसा लगेगा तथा तब तक परिवार को कोई न कोई इंतजाम कर लेना है। जब पंकज से वहां जाने के लिये मोटर-साइकिल की व्यवस्था करने को कहा जाता है तो वह अपनी जिम्मेदारियों से भागते हुए ऐसा करने से इनकार कर देता है।
6. ट्री फुल ऑफ पैरट्स
निर्देशकः जयराज
निर्माताः नवनीत फिल्म्स
भाषाः मलयालम
सारांश
आठ साल का लड़का पूजन कोई साधारण बालक नहीं था। वह झील में मछली पकड़ने जैसे छोटे-छोटे काम करके अपना पेट पालता है और अपने परिवार की देखभाल करता है। उसके परिवार में शराबी बाप, दादा और परदादा थे। उसकी मां कई वर्षों पहले किसी के साथ भाग गई थी।
एक दिन मछली पकड़ते समय पूजन ने एक अंधे व्यक्ति को देखा, जो अकेला नावों के ठिकाने पर बैठा था। ऐसा लगता था जैसे वह अपने घर का रास्ता भूल गया हो। उसे कुछ याद नहीं था। उसे बस इतना याद था कि उसके घर के सामने लगा पेड़ तोतों से भरा रहता था। पुलिस थाने में इस व्यक्ति के बारे में सूचना देने की कोशिश भी बेकार चली गई थी।
नदी किनारे पहुंचकर उसने लोगों से पूछताछ की, लेकिन कोई कुछ न बता सका। निराश होकर, पूजन ने कोशिश छोड़ने का इरादा कर लिया। उसी समय उसे एक तोते की आवाज सुनाई दी। आवाज का पीछा करते-करते वह “तोतों से भरे पेड़” तक पहुंच सकता था!
आखिरकार, पूजन ने तय कर लिया कि वह तोतों से भरे पेड़ को खोजते-खोजते अंधे व्यक्ति के घर का रास्ता ढूंढेगा।
अंधे व्यक्ति के बेटे-बहू ने वैसे तो उसका स्वागत खुले दिल से किया, लेकिन उसे कुछ गड़बड़ महसूस हुई। पूजन का शक उस समय पक्का हो गया, जब उसने उन दोनों की बातचीत सुन ली। वे लोग अपना पुराना घर बेचकर नये घर में जा रहे थे और उस अंधे व्यक्ति से छुटकारा पाने की उम्मीद कर रहे थे। उनकी बातचीत से यह साफ हो गया कि वे अंधे व्यक्ति को बोझ मानते हैं और उससे छुटकारा पाना चाहते हैं।
लौटते हुये पूजन ने अंधे व्यक्ति से विदा ली और नाव पर सवार हो गया। उसे पता था कि अंधे व्यक्ति के साथ क्या होने वाला है, इसलिये पूजन की आत्मा उसे वहां अकेला छोड़ने से रोक रही थी। बिना किसी को बताये, उसने तय कर लिया कि वह अंधे व्यक्ति को वापस लेता जायेगा। पूजन अंधे व्यक्ति को नाव में साथ लेकर वापस लौटने लगा।