रुपये से देश की इज़्ज़त गिर रही हैं क्या?
दो महीने पहले मैंने रुपये का हिसाब किताब लिखा था तब एक अमेरिकी डॉलर ₹78 की तरफ़ बढ़ रहा था और अब ₹80 की तरफ़. रिसर्च फ़र्म नोमूरा ने कहा है कि रुपया इस साल के आख़िर तक गिरकर डॉलर के मुक़ाबले ₹82 तक पहुँच जाएगा. हर रोज़ हम ट्विट, ताने और हेडलाइन देख रहे हैं कि रुपया गिरने का नया रेकॉर्ड बना रहा है. मैंने पिछली बार भी बताया था कि कैसे बीजेपी ने दस साल पहले रुपये को तब के प्रधानमंत्री की उम्र से जोड़ दिया था और अब वही काम कांग्रेस कर रही हैं, लेकिन क्या रुपये का दाम गिरने से देश की इज़्ज़त गिरती है तो इसका जवाब बिज़नेस के दो बड़े पत्रकारों ने दिया है कि नहीं, देश की इज़्ज़त से रुपये को मत जोड़िए. ये बात बिज़नेस स्टैंडर्ड के चेयरमैन टीएन नैनन ने लिखी है और क्विंट के मुख्य संपादक राघव बहल ने.
टीएन नैनन ने लिखा है कि पी चिदंबरम जब वित्त मंत्री थे तो ऐसी हेडलाइन से बहुत चिढ़ते थे कि रुपये में रिकॉर्ड गिरावट हुई है. वो इसे वित्त मंत्री के तौर पर अपने काम से जोड़कर देखते थे. अब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी यही दुहाई दे रही है कि डॉलर के मुक़ाबले रुपया गिरा तो है लेकिन बाक़ी करेंसी के मुक़ाबले गिरावट कम हुई है. इसमें सच्चाई भी है.
डॉलर ज़रूर साल भर में ₹75 से फिसलकर ₹80 की तरफ़ बढ़ रहा है. रुपया डॉलर के मुक़ाबले गिरा है लेकिन कुछ करेंसी के मुक़ाबले मज़बूत हुआ है. तो आप ऐसा तो नहीं कह सकते है कि डॉलर के मुक़ाबले हमारी इज़्ज़त कम हो गई और यूरो या पाउंड के मुक़ाबले बढ़ गई. यूक्रेन रुस युद्ध के बाद जो हालात बने हैं उससे सभी करेंसी गिर रही हैं, कुछ कम गिरी है कुछ ज़्यादा. कोरोनावायरस के बाद अमेरिका में लोगों के खाते में डॉलर डालें जो बेहतर रिटर्न की तलाश में दुनिया भर में बाज़ार में पहुँचे . अब महंगाई कम करने के लिए अमेरिका में ब्याज दरों को बढ़ा दिया है. रिटर्न अमेरिका में ज़्यादा है. डॉलर वापस लौटने से दुनिया भर में उसका भाव बढ़ रहा है. बाक़ी करेंसी डॉलर के मुक़ाबले गिर रही है.
डॉलर दुनिया में सबसे बड़ी करेंसी है, ज़्यादा लेनदेन इसमें ही होता है. डॉलर के गिरने से फ़ौरी तौर पर हमें जो नुक़सान है वो है महंगाई बढ़ने का. हम जो जो चीज़ें विदेश से मँगवाते है वो और महँगी होगी जैसे पेट्रोल, फर्टिलाइजर, सोना, इलेक्ट्रॉनिक सामान, मशीन कल पुर्ज़े. अब ये भी समझ लीजिए कि रुपया गिर क्यों रहा है और इसे थामा कैसे जा सकता है. रुपये को थामने का एक ही तरीक़ा है कि हम इंपोर्ट कम करें और एक्सपोर्ट ज़्यादा करें.अभी हम विदेश से सामान ज़्यादा मँगवाते है और विदेश में बेचते कम है. 30 जून को ख़त्म तिमाही में हमारा करंट अकाउंट घाटा 70 बिलियन डॉलर पर है .ये मोटे तौर पर इंपोर्ट और एक्सपोर्ट का अंतर है. शेयर बाज़ार से विदेशी निवेशकों ने इस साल अब तक 30 बिलियन डॉलर निकाल लिए हैं. ऐसे में डॉलर बाहर जा रहा है. डॉलर की कमी हो रही है बाज़ार का नियम है कि जिसकी कमी है उसका दाम बढ़ता है.डॉलर के लिए ज़्यादा रुपये देने पड़ रहे हैं.
नैनन और राघव बहल का लॉजिक है कि रुपये के गिरने से एक्सपोर्ट में फ़ायदा होता है. हमारे पास से सामान या सर्विस दुनिया क्वालिटी के कारण नहीं ख़रीदती है बल्कि दाम कम होने के कारण. रुपया गिरता है तो दूसरे देशों को हमारा माल और सस्ता पड़ता है. चीन और जापान ने अपनी करेंसी को कमजोर रखा, दुनिया भर में माल बेचा और अपने देश को आर्थिक रुप मज़बूत बनाया. भारत ने आत्मनिर्भरता के नाम पर आज़ादी के लगभग 40 साल तक रुपये को मज़बूत रखा. क्या सामान देश में आएगा? क्या सामान विदेश में बेचा जाएगा? आप विदेश जाते समय कितने डॉलर ले जा सकते है? ये सब सरकार तय करती थी. 1991 के बाद इसमें खुलापन आना शुरू हुआ. हम सबकी आमदनी पिछले 25-30 सालों में बढ़ी है. फिर भी चीन की तुलना में ये कुछ भी नहीं है. हमारी और चीन की इकनॉमी लगभग 40 साल पहले तक बराबर थी. हम सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली इकनॉमी के नाम पर कितना भी उछल लें. हम 3 ट्रिलियन डॉलर पर है और चीन 18 ट्रिलियन डॉलर पर. भारत के मुक़ाबले चीन की प्रति व्यक्ति आय पाँच से छह गुना अधिक है.
एक बार के लिए हम इस लॉजिक को छोड़ भी दें कि रुपया का गिरना अच्छा है और इसे रोका जाना चाहिए तो ये इतना आसान भी नहीं है. इंपोर्ट और एक्सपोर्ट का अंतर पाटने में वर्षों लग जाएँगे तब तक रिज़र्व बैंक के पास इस गिरावट को रोकने का एक ही तरीक़ा है और वो है विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर को खुले बाज़ार में बेचना .हमारा भंडार 600 बिलियन डॉलर का है, इसमें रुपये को बचाने के लिए पिछले कुछ महीनों में 50 बिलियन डॉलर को खुले बाज़ार में छोड़ा गया है यानी हम अपना ख़ज़ाना ख़ाली कर रहे हैं. ये ख़ज़ाना भी दरअसल उधारी का है. भारत में जो भी विदेशी निवेश करते हैं, भारतीय कंपनियाँ क़र्ज़ा विदेश से उठाती है सब डॉलर रिज़र्व बैंक के पास जमा होता रहता है. जिस दिन ये सब लोग डॉलर माँगने आ जाएँ उस दिन ख़ज़ाना ख़ाली हो सकता है जैसे हाल में पाकिस्तान या श्रीलंका में हुआ या 1991 में हमारे देश में भी तीन हफ़्ते के इंपोर्ट के बराबर ही विदेशी मुद्रा बची थी. तब विदेशियों के लिए बाज़ार खोलकर हमने ख़ुद को बचा लिया था.
अगले नौ महीनों में हमें 270 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज चुकाना है. फिर भी हम 1991 से बेहतर हालत में है तब हमें इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड IMF से क़र्ज़ा लेना पड़ा था, विदेशी मुद्रा पर संकट नहीं आएँ इसलिए रिज़र्व बैंक इस हफ़्ते कुछ कदम भी उठाए हैं. बैंकों को विदेशी मुद्रा खातों पर ज़्यादा ब्याज देने की छूट दी गई है. विदेशी निवेशकों को भारतीय बॉन्ड में निवेश की लिमिट बढ़ा दी गई है. भारतीय कंपनियों को विदेश से क़र्ज़ लेने को आसान बनाया गया है. इन कदमों का एक ही मक़सद है कि देश में डॉलर की आवक बढ़े. ये डॉलर उधारी के ही सही पर इनकी आवक बढ़ने से रुपये को थामा जा सकेगा. विदेशी मुद्रा भंडार को ख़ाली करने के बजाय ये बेहतर विकल्प है.