छायावादी कवि ” निराला जी” की जयंती पर आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक घटनाएं
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला जी” एक प्रमुख छायावादी कवि तथा उपन्यासकार भी थे। आपको बता दें कि निराला जी की कहानी संग्रह “लिली” में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 दर्शाई हुई है। मगर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वह अपना जन्मदिन सरस्वती पूजा यानी वसंत पंचमी के दिन मनाया करते थे।
इसी के साथ आपको बता दें कि निराला जी के पिता राम सहाय तिवारी उन्नाव के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी किया करते थे। निराला जी ने औपचारिक शिक्षा हाई स्कूल तक प्राप्त करी तत्पश्चात उन्होंने हिंदी, बांग्ला, तथा संस्कृत का अध्ययन स्वयं किया। आपको बता दें कि निराला जी 3 साल की उम्र में ही अपनी मां को खो चुके थे और युवावस्था तक आते-आते पिता को भी खो चुके थे।
पहले विश्व युद्ध में निराला जी ने अपनी पत्नी मनोहरा देवी, चाचा,भाई तथा भाभी को भी गवा दिया। इसके पश्चात उन्होंने फिर भी हार नहीं मानी और अपने तरीके से अपना जीवन जीना बेहतर समझा। आपको बता दें कि एक घटना उनके हिंदी प्रेम को लेकर भी है। इस घटना में दो किरदार हैं -बापू तथा निराला।
बापू के साथ झड़प
जैसा कि आप सभी जानते हैं हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए महात्मा गांधी का प्रेम जगजाहिर है, मगर क्या आप जानते हैं कि सूर्यकांत त्रिपाठी से हिंदी की अस्मिता को लेकर बापू की भिड़ंत हो गई थी। तत्पश्चात निराला जी ने अपनी खिन्नता को इतना विस्तार से लिखा कि बापू के आलोचक आज तक इसका इस्तेमाल करते हैं।
इस पर निराला जी ने गांधी जी से मुलाकात के बाद अपने शब्दों में कविता लिखी –
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या भजते होते तुमको
ऐरे-गैरे नत्थू खैरे;
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता,
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या अवतार हुये होते
कुल-के-कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम-भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या पटेल, राजन, टण्डन,
गोपालाचारी भी भजते?-
भजता होता तुमको मैं औ’
मेरी प्यारी अल्लारक्खी,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
इसके बाद उन्होंने कई पत्रिकाओं में काम किया और अपने निधन तक ही उन्होंने लिखना जारी रखा। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। 15 अक्तूबर 1961 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।
उनकी प्रमुख कृतियां-
काव्यसंग्रह- जूही की कली, अनामिका (1923), परिमल (1930), गीतिका (1936), द्वितीय अनामिका (1938), तुलसीदास (1938), कुकुरमुत्ता (1942), अणिमा (1943), बेला (1946), नये पत्ते (1946), अर्चना(1950), आराधना 91953), गीत कुंज (1954), सांध्यकाकली, अपरा, बादल राग।
उपन्यास- अप्सरा, अलका, प्रभावती (1946), निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
पुराण कथा- महाभारत।
कहानी संग्रह- लिली, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी (1941), सखी, देवी।
निबंध- रवीन्द्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह।
अनुवाद- आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भारत में विवेकानंद और राजयोग का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद।
लेखिका – कंचन गोयल
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