NewsExpress

News Express - Crisp Short Quick News
वर्तमान समय में राजनीति और इसका बदलता स्वरूप

अगर आज के समय में हम भारतीय राजनीति के बारे में सोचे, तो पार्टी के तौर पर सबसे पहला ध्यान भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बारे में होता है । और व्यक्तिगत तौर पर नरेंद्र मोदी और विरोधी दल ध्यान में होता है, व्यक्तिगत तौर पर किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं आता है, क्योंकि विपक्ष में कोई भी मजबूत नेता दिखाई नहीं देता है । इसी बात को वैचारिक तौर पर सोचने पर वामपंथी और राष्ट्रवादी-हिन्दूत्वादी नजर आते हैं । लेकिन इस राजनीतिक लड़ाई में, बहुतेरे सच्चाई धूमिल नजर आ रही है और केवल मुख्य बिंदू को आधार बनाकर राजनीतिक चिंतन किया जा रहा है ।

भारतीय राजनीति की विचारधारा

भारतीय राजनीति के तीन मुख्य विचारधारा रहें हैं, वामपंथ, समाजवाद और दक्षिणपंथ । वामपंथ का जन्म सम्राज्यवाद और पूंजीवाद ग्रसित यूरोप में हुआ था । इसके जन्म का कारण सम्राज्यवाद और पूंजीवाद ही बना, जो बाद के शुरूआती दौर में उस आर्थिक बिमार यूरोप के अधिकांश भाग पर विजय पाता चला गया और अंतरराष्ट्रीय तौर पर आम अवाम के मन को भाता गया जिसका असर भारत में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के रूप निकला । वो भाकपा व कम्यूनिस्ट विचारधारा,आज विभिन्न खेमों में बटता चला आया है । और आज भी उसी विचारधारा में थोड़ी बहुत संशोधन के साथ खड़ा है ।

भारतीय राजनीतिक विचारधारा के दुसरा खंड समाजवाद के उत्पति, किसी क्रांति के वजह से कुछ खास समय में न होकर, बल्कि प्राचीन समय से ही भारतीय समाज का एक अंग था और मध्यकाल आते-आते समाज से उठकर मन में आ गया । इसकी साक्ष्य भारतीय साहित्य, संस्कृति, काव्य, कविता और गान में थोड़ी सी झलकती है । मध्यकाल में एक ओर राजशाही या आज के भाषा में दक्षिणपंथी तो दुसरे ओर इसके विपरित कुछ होना तो लाज़मी थी, तो यह समाजवाद का ही एक रूप मान सकते हैं । फिर आधुनिक काल के शुरूआती समय में जाति-धर्म ग्रसित भारत में इन समस्याओं से निजात पाने के लिए समाजवाद ने एक तरंग दिखाना शुरू किया । इसका उद्देश्य किसी जाति-धर्म से निष्पक्ष, एक समानता का समाज बनाना था । उस समय में समाजवाद केवल समाज तक ही सिमीत था, फिर समाजवाद के नेताओं ने इसमें वामपंथ समर्पित लक्ष्य आर्थिक आजादी को इसमें थोड़ा । बीसवीं शताब्दी में कुछ खास नेता, राजा राम मोहन राय, भीमराव, राममनोहर लोहिया और अन्य ने इसकी अगुवाई की ।

वामपंथ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक आजादी के साथ-साथ भारतीय परिवेश में जाति-धर्म से आजादी को लक्ष्य रखा क्योंकि आर्थिक भेदभाव से पहले जाति-धर्म खड़ा था । और समाजवाद ने समाजिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक आजादी को भी लक्ष्य बनाया क्योंकि आर्थिक सम्पन्नता , समाजिक भेदभाव का अंग था । हालांकि दोनों एक दुसरे के पूरक हैं और इन दोनों के यह मिलती-जुलती लक्ष्य और तरीके के कारण से वामपंथ और समाजवादी धड़ा एक पंक्ति में आया । और आज भी कभी-कभी एक साथ नजर आते हैं । लेकिन दोनों के मुख्य लक्ष्य आज भी अलग-अलग हैं ।

वामपंथ और समाजवाद के दुश्मन राजशाही और जातिगत-धार्मिक उत्पीड़नता है, जिसका मुख्य रक्षक और अंतरराष्ट्रीय सह भारतीय राजनीतिक विचारधारा के एक बिल्कुल विपरित व अंतिम अंग दक्षिणपंथ है । जिसने हमेशा से अपनी विचारधारा को कायम रखने के लिए धार्मिक और जातिगत कट्टरता और आर्थिक दुष्प्रभाव को सह दिया है । और हमेशा से भारतीय सत्ता में रहा है, चाहे राजशाही की बात हो या लोकतांत्रिक सरकार की बात हो । दक्षिणपंथ, मुसोलिनी और हिटलर के समय में अपने शीर्ष पर थी । और भारत में शिर्षोकदम के रास्ते पर जाती नजर आ रही है ।

आज के परिदृश्य में भारतीय राजनीतिक विचारधारा

आज के समय में समाजवादी विचारधारा के वाहक अपने वैचारिक अस्तित्व को बिल्कुल खो चूके हैं । कभी वामपंथ के नजदीक समाजवादी नेता आज दक्षिणपंथ के गोद में जा बैठे हैं । लेकिन खुद को वामपंथी कहते नजर आयेंगे। बहुत सारे राजनीतिक चिंतक समाजवाद को मध्यम विचारधारा भी कहते हैं, लेकिन यह बिल्कुल ग़लत है, समाजवाद कभी भी मध्य में नहीं रहा है, हमेशा से वामपंथ के नजदीक रहा है । समाजवादी लोग हमेशा समाजिक न्याय की बात करते रहते हैं, लेकिन दक्षिणपंथ के साथ होकर समाजिक न्याय हो ही नहीं सकती ।

आज के दौर में वामपंथी कुछ किताबी नजर आते हैं, इसका मुख्य कारण राजनीतिक विचारधारा में अति सुक्ष्म परिवर्तन का होना है । जिस परिस्थिति और समस्या के बीच वामपंथी विचारधारा का जन्म हुआ, वो आज के तुलना में बिल्कुल अलग थी । और उसी वैचारिक तरीके के अनुरूप, आज के समस्या का निदान खोज पाना बहुत मुश्किल है । आज, भारतीय राजनीति में वामपंथ खोती नजर आ रही है, इसका मुख्य कारण विचारधारा का समय के साथ सामंजस्य न कर पाना है । हाल ही के बिहार विधानसभा चुनाव में वामपंथ- अर्ध समाजवाद और शांत दक्षिणपंथ का गठबंधन, उग्र दक्षिणपंथ के विरोध में हुआ, लेकिन वामपंथ आंतरिक रूप से अपने विचारधारा पर कायम रहा ।

आज के समय में दक्षिणपंथी विचारधारा का सारथी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी है तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कभी भी अपने विचारधारा को खुल कर व्यतित नहीं किया । नेहरू को साम्यवादी कहना बिल्कुल ग़लत होगा क्योंकि विदेशी उद्योग को रोककर देश के अंदर पूंजीवादी का नींव डालना कहीं से साम्यवाद नहीं है । कांग्रेस ने समय के साथ अपने विचारधारा में महापरिवर्तन किया है क्योंकि कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य, सत्ता में बने रहना है । और यह बदलती विचार और शातिराना चाल ही दक्षिणपंथ में होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण है । वर्तमान में भाजपा भारतीय सत्ता पर काबिज़ है, और खुलेआम तौर पे अपने प्रशासनिक गतिविधियों से बता रहा है कि यह एक उग्र दक्षिणपंथ का मुखिया हैं । धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, मनुस्मृतिवाद और वेद की राजनीति के लक्षण बताए रहें हैं कि उससे बड़ा दक्षिणपंथ कोई नहीं है । आज उद्योगपति के फायदे के लिए आमजनों को अधिकार विहिन किया जा रहा है, पार्टी और व्यक्तिगत के फायदे के लिए संविधान, कानून और स्वतंत्र संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है । सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा है। यह सब दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रभाव है । किसान सड़क पर हैं, नौजवान बेरोजगार हैं, मजदूर कैद हैं, छात्र परेशान हैं । सबका हालत खस्ता हो चूका है ।

रवि रंजन – राजनीति विश्लेषक

कन्हैया कुमार सीपीआई की डूबती नैया को बीच मंझधार में छोड़, ख्याति बटोरते चले गए