नई दिल्ली में वीर बाल दिवस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ
आज देश पहला ‘वीर बाल दिवस’ मना रहा है। जिस दिन को, जिस बलिदान को हम पीढ़ियों से याद करते आए हैं, आज एक राष्ट्र के रूप में उसे एकजुट नमन करने के लिए एक नई शुरुआत हुई है। शहीदी सप्ताह और ये वीर बाल दिवस, हमारी सिख परंपरा के लिए भावों से भरा जरूर है लेकिन इससे आकाश जैसी अन्नत प्रेरणाएं भी जुड़ी हैं। वीर बाल दिवस’ हमें याद दिलाएगा है कि शौर्य की पराकाष्ठा के समय कम आयु मायने नहीं रखती। ‘वीर बाल दिवस’ हमें याद दिलाएगा है कि दस गुरुओं का योगदान क्या है, देश के स्वाभिमान के लिए सिख परंपरा का बलिदान क्या है!‘वीर बाल दिवस’ हमें बताएगा कि- भारत क्या है, भारत की पहचान क्या है! हर साल वीर बाल दिवस का ये पुण्य अवसर हमें अपने अतीत को पहचानने और आने वाले भविष्य का निर्माण करने की प्रेरणा देगा। भारत की युवा पीढ़ी का सामर्थ्य क्या है, भारत की युवा पीढ़ी ने कैसे अतीत में देश की रक्षा की है, मानवता के कितने घोर-प्रघोर अंधकारों से हमारी युवा पीढ़ी ने भारत को बाहर निकाला है, वीर बाल दिवस’ आने वाले दशकों और सदियों के लिए ये उद्घोष करेगा।
मैं आज इस अवसर पर वीर साहिबजादों के चरणों में नमन करते हुए उन्हें कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। इसे मैं अपनी सरकार का सौभाग्य मानता हूं कि उसे आज 26 दिसंबर के दिन को वीर बाल दिवस के तौर पर घोषित करने का मौका मिला। मैं पिता दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी, और सभी गुरुओं के चरणों में भी भक्तिभाव से प्रणाम करता हूँ। मैं मातृशक्ति की प्रतीक माता गुजरी के चरणों में भी अपना शीश झुकाता हूं।
विश्व का हजारो वर्षों का इतिहास क्रूरता के एक से एक खौफनाक अध्यायों से भरा है। इतिहास से लेकर किंवदंतियों तक, हर क्रूर चेहरे के सामने महानायकों और महानायिकाओं के भी एक से एक महान चरित्र रहे हैं। लेकिन ये भी सच है कि, चमकौर और सरहिंद के युद्ध में जो कुछ हुआ, वो ‘भूतो न भविष्यति’ था। ये अतीत हजारों वर्ष पुराना नहीं है कि समय के पहियों ने उसकी रेखाओं को धुंधला कर दिया हो। ये सब कुछ इसी देश की मिट्टी पर केवल तीन सदी पहले हुआ। एक ओर धार्मिक कट्टरता और उस कट्टरता में अंधी इतनी बड़ी मुगल सल्तनत, दूसरी ओर, ज्ञान और तपस्या में तपे हुये हमारे गुरु, भारत के प्राचीन मानवीय मूल्यों को जीने वाली परंपरा! एक ओर आतंक की पराकाष्ठा, तो दूसरी ओर आध्यात्म का शीर्ष! एक ओर मजहबी उन्माद, तो दूसरी ओर सबमें ईश्वर देखने वाली उदारता! और इस सबके बीच, एक ओर लाखों की फौज, और दूसरी ओर अकेले होकर भी निडर खड़े गुरु के वीर साहिबजादे! ये वीर साहिबजादे किसी धमकी से डरे नहीं, किसी के सामने झुके नहीं। जोरावर सिंह साहब और फतेह सिंह साहब, दोनों को दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया। एक ओर नृशंसता ने अपनी सभी सीमाएं तोड़ दीं, तो दूसरी ओर धैर्य, शौर्य, पराक्रम के भी सभी प्रतिमान टूट गए। साहिबजादा अजीत सिंह और साहिबजादा जुझार सिंह ने भी बहादुरी की वो मिसाल कायम की, जो सदियों को प्रेरणा दे रही है।
जिस देश की विरासत ऐसी हो, जिसका इतिहास ऐसा हो, उसमें स्वाभाविक रूप से स्वाभिमान और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से, हमें इतिहास के नाम पर वो गढ़े हुये नैरेटिव बताए और पढ़ाये जाते रहे, जिनसे हमारे भीतर हीनभावना पैदा हो! बावजूद इसके हमारे समाज ने, हमारी परम्पराओं ने इन गौरवगाथाओं को जीवंत रखा।
अगर हमें भारत को भविष्य में सफलता के शिखरों तक लेकर जाना है, तो हमें अतीत के संकुचित नजरियों से भी आज़ाद होना पड़ेगा। इसीलिए, आजादी के अमृतकाल में देश ने ‘गुलामी की मानसिकता से मुक्ति’ का प्राण फूंका है।‘वीर बाल दिवस’ देश के उन ‘पंच-प्राणों’के लिए प्राणवायु की तरह है।
इतनी कम उम्र में साहिबजादों के इस बलिदान में हमारे लिए एक और बड़ा उपदेश छिपा हुआ है। आप उस दौर की कल्पना करिए! औरंगजेब के आतंक के खिलाफ, भारत को बदलने के उसके मंसूबों के खिलाफ, गुरु गोविंद सिंह जी, पहाड़ की तरह खड़े थे। लेकिन, जोरावर सिंह साहब और फतेह सिंह साहब जैसे कम उम्र के बालकों से औरंगजेब और उसकी सल्तनत की क्या दुश्मनी हो सकती थी? दो निर्दोष बालकों को दीवार में जिंदा चुनवाने जैसी दरिंदगी क्यों की गई? वो इसलिए, क्योंकि औरंगजेब और उसके लोग गुरु गोविंद सिंह के बच्चों का धर्म तलवार के दम पर बदलना चाहते थे। जिस समाज में, जिस राष्ट्र में उसकी नई पीढ़ी ज़ोर-जुल्म के आगे घुटने टेक देती है, उसका आत्मविश्वास और भविष्य अपने आप मर जाता है। लेकिन, भारत के वो बेटे, वो वीर बालक, मौत से भी नहीं घबराए। वो दीवार में जिंदा चुन गए, लेकिन उन्होंने उन आततायी मंसूबों को हमेशा के लिए दफन कर दिया। यही, किसी भी राष्ट्र के समर्थ युवा का सामर्थ्य होता है। युवा, अपने साहस से समय की धारा को हमेशा के लिए मोड़ देता है। इसी संकल्पशक्ति के साथ, आज भारत की युवा पीढ़ी भी देश को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए निकल पड़ी है। और इसलिए अब 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस की भूमिका और भी अहम हो गई है।
सिख गुरु परंपरा केवल आस्था और आध्यात्म की परंपरा नहीं है। ये ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के विचार का भी प्रेरणा पुंज है। हमारे पवित्र गुरुग्रंथ साहिब से बड़ा इसका उदाहरण और क्या हो सकता है? इसमें सिख गुरुओं के साथ साथ भारत के अलग-अलग कोनों से 15 संतों और 14 रचनाकारों की वाणी समाहित है। इसी तरह, आप गुरु गोविंद सिंह की जीवन यात्रा को भी देखिए। उनका जन्म पूर्वी भारत में पटना में हुआ। उनका कार्यक्षेत्र उत्तर-पश्चिमी भारत के पहाड़ी अंचलों में रहा। और उनकी जीवनयात्रा महाराष्ट्र में पूरी हुई। गुरु के पंच प्यारे भी देश के अलग-अलग हिस्सों से थे, ऑैर मुझे तो गर्व है कि पहले पंच प्यारों में एक उस धरती से भी था, द्वारिका से गुजरात से जहां मुझे जन्म लेने का सौभाग्य मिला है। ‘व्यक्ति से बड़ा विचार, विचार से बड़ा राष्ट्र’, ‘राष्ट्र प्रथम’ का ये मंत्र गुरु गोविंद सिंह जी का अटल संकल्प था। जब वो बालक थे, तो ये प्रश्न आया कि राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिए बड़े बलिदान की जरूरत है। उन्होंने अपने पिता से कहा कि आपसे महान आज कौन है? ये बलिदान आप दीजिये। जब वो पिता बने, तो उसी तत्परता से उन्होंने अपने बेटों को भी राष्ट्र धर्म के लिए बलिदान करने में संकोच नहीं किया। जब उनके बेटों का बलिदान हुआ, तो उन्होंने अपनी संगत को देखकर कहा- ‘चार मूये तो क्या हुआ, जीवत कई हज़ार’ । अर्थात्, मेरे चार बेटे मर गए तो क्या हुआ? संगत के कई हजार साथी, हजारों देशवासी मेरे बेटे ही हैं। देश प्रथम, Nation First को सर्वोपरि रखने की ये परंपरा, हमारे लिए बहुत बड़ी प्रेरणा है। इस परंपरा को सशक्त करने की ज़िम्मेदारी आज हमारे कंधों पर है।
भारत की भावी पीढ़ी कैसी होगी, ये इस बात पर भी निर्भर करता है वो किससे प्रेरणा ले रही है। भारत की भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा का हर स्रोत इसी धरती पर है। कहा जाता है कि, हमारे देश भारत का नाम जिस बालक भारत के नाम पर पड़ा, वो सिंहों और दानवों तक संहार करके थकते नहीं थे। हम आज भी धर्म और भक्ति की बात करते हैं तो भक्तराज प्रह्लाद को याद करते हैं। हम धैर्य और विवेक की बात करते हैं तो बालक ध्रुव का उदाहरण देते हैं। हम मृत्यु के देवता यमराज को भी अपने तप से प्रभावित कर लेने वाले नचिकेता को भी नमन करते हैं। जिस नचिकेता ने बाल्यकाल में यमराज को पूछा था what is this? मृत्यु क्या होता है? हम बाल राम के ज्ञान से लेकर उनके शौर्य तक, वशिष्ठ के आश्रम से लेकर विश्वामित्र के आश्रम तक, उनके जीवन में हम पग-पग पर आदर्श देखते हैं। प्रभु राम के बेटे लव-कुश की कहानी भी हर मां अपने बच्चों को सुनाती है। श्रीकृष्ण भी हमें जब याद आते हैं, तो सबसे पहले कान्हा की वो छवि याद आती है जिनकी बंशी में प्रेम के स्वर भी हैं, और वो बड़े बड़े राक्षसों का संहार भी करते हैं। उस पौराणिक युग से लेकर आधुनिक काल तक, वीर बालक-बालिकाएं, भारत की परंपरा का प्रतिबिंब रहे हैं।
आज एक सच्चाई भी मैं देश के सामने दोहराना चाहता हूं। साहिबजादों ने इतना बड़ा बलिदान और त्याग किया, अपना जीवन न्योछावर कर दिया, लेकिन आज की पीढ़ी के बच्चों को पूछेंगे तो उनमें से ज्यादातर को उनके बारे में पता ही नहीं है। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं होता है कि इतनी बड़ी शौर्यगाथा को इस तरह भुला दिया जाए। मैं आज के इस पावन दिन इस चर्चा में नहीं जाऊंगा कि पहले हमारे यहां क्यों वीर बाल दिवस का विचार तक नहीं आया। लेकिन ये जरूर कहूंगा कि अब नया भारत, दशकों पहले हुई एक पुरानी भूल को सुधार रहा है।
किसी भी राष्ट्र की पहचान उसके सिद्धांतों, मूल्यों और आदर्शों से होती है। हमने इतिहास में देखा है, जब किसी राष्ट्र के मूल्य बदल जाते हैं तो कुछ ही समय में उसका भविष्य भी बदल जाता है। और, ये मूल्य सुरक्षित तब रहते हैं, जब वर्तमान पीढ़ी के सामने अपने अतीत के आदर्श स्पष्ट होते हैं। युवा पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए हमेशा रोल मॉडल्स की जरूरत होती है। युवा पीढ़ी को सीखने और प्रेरणा लेने के लिए महान व्यक्तित्व वाले नायक-नायिकाओं की जरूरत होती है। और इसीलिए ही, हम श्रीराम के आदर्शों में भी आस्था रखते हैं, हम भगवान गौतम बुद्ध और भगवान महावीर से प्रेरणा पाते हैं, हम गुरुनानक देव जी की वाणी को जीने का प्रयास करते हैं, हम महाराणा प्रताप और छत्रपति वीर शिवाजी महाराज जैसे वीरों के बारे में भी पढ़ते हैं। इसीलिए ही, हम विभिन्न जयंतियां मनाते हैं, सैकड़ों-हजारों वर्ष पुरानी घटनाओं पर भी पर्वों का आयोजन करते हैं। हमारे पूर्वजों ने समाज की इस जरूरत को समझा था, और भारत को एक ऐसे देश के रूप में गढ़ा जिसकी संस्कृति पर्व और मान्यताओं से जुड़ी है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यही ज़िम्मेदारी हमारी भी है। हमें भी उस चिंतन और चेतना को चिरंतर बनाना है। हमें अपने वैचारिक प्रवाह को अक्षुण्ण रखना है।
इसीलिए, आज़ादी के अमृत महोत्सव में देश स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास कर रहा है। हमारे स्वाधीनता सेनानियों के, वीरांगनाओं के, आदिवासी समाज के योगदान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हम सब काम कर रहे हैं।‘वीर बाल दिवस’ जैसी पुण्य तिथि इस दिशा में प्रभावी प्रकाश स्तम्भ की भूमिका निभाएगी।
मुझे खुशी है कि वीर बाल दिवस से नई पीढ़ी को जोड़ने के लिए जो क्विज कंपटीशन हुआ, जो निबंध प्रतियोगिता हुई, उसमें हजारों युवाओं ने हिस्सा लिया है। जम्मू-कश्मीर हो, दक्षिण में पुडुचेरी हो, पूरब में नागालैंड हो, पश्चिम में राजस्थान हो, देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां के बच्चों ने इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर के साहिबजादों के जीवन के विषय में जानकारी न ली हो, निबंध न लिखा हो। देश के विभिन्न स्कूलों में भी साहिबजादों से जुड़ी कई प्रतियोगिताएं हुई हैं। वो दिन दूर नहीं जब केरला के बच्चों को वीर साहिबजादों के बारे में पता होगा, नॉर्थ ईस्ट के बच्चों को वीर साहिबजादों के बारे में पता होगा।
हमें साथ मिलकर वीर बाल दिवस के संदेश को देश के कोने-कोने तक लेकर जाना है। हमारे साहिबजादों का जीवन, उनका जीवन ही संदेश देश के हर बच्चे तक पहुंचे, वो उनसे प्रेरणा लेकर देश के लिए समर्पित नागरिक बनें, हमें इसके लिए भी प्रयास करने हैं। मुझे विश्वास है, हमारे ये एकजुट प्रयास समर्थ और विकसित भारत के हमारे लक्ष्य को नई ऊर्जा देंगे। मैं फिर एक बार वीर साहिबजादों के चरणों में नमन करते हुए इसी संकल्प के साथ, आप सभी का हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद करता हूं!