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उपराष्ट्रपति धनखड़ ने जनता के बीच चर्चा और संवाद का सुदृढ़ माहौल बनाने का आह्वान किया

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जनता के बीच चर्चा और संवाद का सुदृढ़ माहौल बनाने का आह्वान किया और कहा कि अन्‍य लोगों के विचारों के प्रति असहिष्णुता, विचारों के मुक्त आदान-प्रदान की दृष्टि से गलत है।

भारत में वाद-विवाद, चर्चा और ज्ञान साझा करने की महान विरासत का उल्‍लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि जनता के बीच खासतौर से विधायिकाओं में चर्चा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए अतीत से सबक लिया जा सकता है।

धनखड़ ने कहा कि खुद को दूसरे से बेहतर दर्शाने और जनता की नजरों के केन्‍द्र में बने रहने की आपाधापी में टेलीविजन या सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसें आक्रामक लड़ाई के मैदानों में बदल रही हैं’। उन्होंने मीडिया से इस दिशा में पहल करने और आत्मनिरीक्षण करने तथा अनूठी, मूल और हाशिए पर पड़ी आवाजों को मुख्यधारा में आने की जगह बनाने का आह्वान किया।

स्वस्थ और खुले दिमाग से की जाने वाली चर्चाओं का आह्वान करते हुए, उपराष्ट्रपति ने कहा कि समय आ गया है जब हमें सामाजिक संरचनाओं और सोशल मीडिया के बंधे-बंधाए ढांचे (एल्गोरिदम) से बाहर आना होगा और अपने दिमाग में स्‍वच्‍छ विचारों को आने का रास्‍ता देना होगा। उन्‍होंने कहा, “हमें सुनने की कला को पुनर्जीवित करना होगा और संवाद की कला को भी फिर से खोजना होगा।”

उपराष्ट्रपति ने गुवाहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संवाद ‘लोकमंथन’ के तीसरे संस्करण का उद्घाटन किया। उत्तर पूर्वी भारत के समृद्ध सांस्कृतिक लोकाचार को उजागर करने के लिए आयोजकों की सराहना करते हुए, श्री धनखड़ ने कहा कि उनकी विविधता में, “क्षेत्र की सांस्कृतिक प्रथाएं शांति, सद्भाव और सार्वभौमिक भाईचारे के सर्वोत्कृष्ट भारतीय मूल्यों के साथ प्रतिध्वनित होती हैं।”

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने भारतीय समाज में बुद्धिजीवियों की भूमिका को रेखांकित किया और बताया कि किस तरह विभिन्‍न संतों ने राजाओं को नीति के मुद्दों पर ऐतिहासिक परामर्श दिए और समाज में सद्भाव और स्थिरता सुनिश्चित की। बुद्धिजीवियों से मौजूदा मुद्दों पर चर्चा करने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि “अगर हमारे बुद्धिजीवी वर्तमान समय में चुप्पी का विकल्प चुनने का फैसला करते हैं, तो समाज का यह बहुत महत्वपूर्ण वर्ग हमेशा के लिए चुप हो जाएगा। उन्हें स्वतंत्र रूप से संवाद और विचार-विमर्श का अभ्यास करना चाहिए ताकि सामाजिक नैतिकता और औचित्य की रक्षा हो सकें।”

संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दी गई प्रमुखता और संविधान सभा की बहसों की समृद्ध परम्‍परा को रेखांकित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि वे स्वतंत्र और स्वस्थ चर्चा के महत्व के प्रमाण हैं जिसे भारत ने लंबे समय से संजोया है। उन्होंने कहा, “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का अमृत है।”

उपराष्ट्रपति ने नागरिक समाज के बुद्धिजीवियों से विचार-विमर्श के माध्यम से राज्य की तीन शाखाओं – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, “बुद्धिजीवियों के संवाद और चर्चा के सकारात्‍मक रवैये से लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों का निश्चित रूप से विकास होगा।”

सभी भारतीयों के बीच “साझा सांस्कृतिक सूत्र” पर विचार करते हुए, धनखड़ ने कहा कि ‘हमारी ‘अद्वितीय सांस्कृतिक एकता’ की सुंदरता और ताकत हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र- सांसारिक, धर्मनिरपेक्ष मामलों से लेकर उच्च आध्यात्मिक पहलुओं तक में परिलक्षित होती है। बुवाई के मौसम में किसानों द्वारा गाए गए गीतों से लेकर पर्यावरण के प्रति हमारे समग्र दृष्टिकोण तक भारतीयता की अंतर्निहित एकता को महसूस किया जा सकता है।

इस संबंध में, उपराष्ट्रपति ने “हमारा अपना इतिहास’’ की भावना विकसित करने का आह्वान किया, जिसमें लोक परंपराएं, स्थानीय कला रूप और असंख्य बोलियां शामिल हैं। उन्‍होंने कहा कि ऐसा होने पर ही हम वास्तव में मन और आत्मा से स्वतंत्र हो सकते हैं। उन्होंने युवाओं को अपने बारे में सोचने के लिए सशक्त बनाने और “सिर्फ सही कौशल ही नहीं, बल्कि सही मानसिकता के साथ” काम करने का भी आह्वान किया।