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आप पसंद करें या नापसंद लेकिन देश की राजनीति में प्रशांत किशोर को नज़रअंदाज करना मुश्किल

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में डीएमके की जीत के कारण एक बार फिर चर्चा में हैं. निश्चित रूप से इन दोनों राज्यों में एक साथ जीत के कारण उनके आलोचक, जिनकी संख्या उनके प्रशंसकों से कई गुना अधिक हैं, शांत रहने पर मजबूर हैं क्योंकि प्रशांत किशोर के बारे में दो सच्‍चाई हैं. एक, आज तक उन्होंने अभी तक पंचायत का चुनाव भी नहीं लड़ा लेकिन उसके बावजूद देश में एक क़ाबिल राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में उनकी छवि इस जीत के बाद और भी मज़बूत हुई हैं. दूसरी आप सत्ता में हो या विपक्ष में, अगर आपके सामने प्रशांत किशोर हैं भले ही आप विश्व के सबसे बड़े और मज़बूत साधन-संसाधन वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता हो या कार्यकर्ता और चुनाव के मैदान में देश की संस्‍था और एजेंसियां आपकी मदद में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगीं हो, इस रविवार की जीत के बाद अब धारणा ये बनती जा रही है कि आपकी जीत मुश्किल है और हार तय है.

प्रशांत किशोर, जिन्हें लोग PK के नाम से अधिक जानते या बुलाते हैं, ने हालांकि बंगाल की जीत के बाद घोषणा कर दी है कि वे अब अपने वर्तमान काम को जारी नहीं रखना चाहते. लेकिन पीके के घोर विरोधी की इस बात पर यही प्रतिक्रिया होती हैं कि आप पानी से मछली निकाल सकते हैं लेकिन राजनीति से प्रशांत का फ़ोकस शायद ख़त्म होने वाला नहीं. ऐसा कहा जाने लगा है कि प्रशांत किशोर बिना खाना खाये तो रह सकते हैं लेकिन राजनीति या राजनीतिक अभियान से उनको दूर रखना मतलब आज के समय के परिप्रेक्ष्य में ऑक्‍सीजन की सप्लाई।

लेकिन आज के तारीख़ में सब यह जानना चाहते हैं कि आख़िर प्रशांत किशोर में ऐसा क्या गुण हैं कि सब मतलब वो चाहे नीतीश हो या उद्धव या जगन या ममता या कैप्टन अमरिंदर या अरविंद केजरीवाल, विधानसभा में जीत का लक्ष्य पाने के लिए अपनी पार्टी की रणनीति, नीति और उसे लागू करने के लिए सबसे बेहतर मानते हैं ? इसका जवाब अगर आप पीके से पूछेंगे तो वो यही कहते हैं कि वो अपने सामने वाले को कभी कम आंकने की गलती नहीं करते और जब भी किसी के साथ उनके प्रचार अभियान का काम संभालते हैं तो उसकी शक्ति से अधिक विरोधी के गुण-दोष का बारीकी से अध्ययन करते हैं. हर नेता के साथ उनका रवैया अलग-अलग होता हैं लेकिन वो ‘मिड कोर्स करेक्शन’ की गुंजाइश भी रखते हैं. जैसे 2015 के बिहार चुनाव के समय उन्‍होंने लालू यादव से तालमेल करने में शुरू के दिनो में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखायी लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सभा मुज़फ़्फ़रपुर में हुई, उसी रात वो लालू यादव से मिलने पहुँच गये क्योंकि उस रैली से उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि बिहार में नरेंद्र मोदी को मात देने के लिए लालू यादव के बिना इस चुनाव में बात नहीं बनने वाली. एक बार लालू यादव के साथ बातचीत का रास्ता खुल जाने के बाद प्रशांत ने पूरे चुनाव से सरकार बनने तक एक ‘ईमानदार संयोजक’ की भूमिका अदा की. कई बार सीटों के नाम और उम्मीदवार को लेकर तालमेल खटाई में पड़ जाता था लेकिन मीडिया को इसकी भनक तक नहीं लगती थी.यही कारण हैं कि एक बार कांग्रेस पार्टी का यूपी में काम संभालने के बाद उन्होंने पटना का वापस रुख नहीं किया जिसका ख़ामियाज़ा उन्हें व्यक्तिगत रूप से उस समय उठाना पड़ा जब नीतीश ने भ्रष्टाचार के बहाने वापस भाजपा के साथ घर वापसी की .

मनीष राय ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )